गंगा दशहरा

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गंगा दशहरा

भौगोलिक संक्षिप्त वर्णन:
भारत वर्ष में जनमानस को प्रभावित करने वाली नदियों में गंगा मय्या का नाम सर्वोपरि है। इनका भारतभूमि एवं भारतवासियों को पोषित करने में सर्वाधिक योगदान है। गंगा नदी देश की प्राकृतिक सम्पदा ही नहीं, जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। वैदिक ग्रंथों, पुराणों एवं भारतीय साहित्य में अपने सौंदर्य और महत्त्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावपूर्ण वर्णन किए गए हैं।

युधिष्ठिर महाराज को उपदेश देते हुए मार्कण्डेय मुनि कहते हैं:

योजनानां सहस्रेषु गङ्गायाः स्मरणांनरः।
अपि दुष्कृतकर्मा तु लभते परमां गतिम्।।
(मत्स्य पुराण, अध्याय 104, श्लोक 14)

अर्थात: मनुष्य कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, यदि वह कई हज़ारों योजन (दूर) से भी गंगा मैया का स्मरण करता है तो उसे (अंततः) परम गति (वैकुण्ठ) की प्राप्ति होती है।

कीर्तनान्मुच्यते पापाद् दृष्टा भद्राणि पश्यति।
अवगाह्य च पीत्वा तु पुनात्यासप्तं कुलं।।
(मत्स्य पुराण, अध्याय 104, श्लोक 15)

अर्थात: गंगा के नामों का कीर्तन करने से सभी पापों का नाश हो जाता है, देखने मात्र से शुभता प्राप्त होती है। स्नान करने से एवं गंगा जल का पान करने से मनुष्य अपने साथ-साथ, कुल की सात पीढ़ियों को भी शुद्ध कर देता है।

इनका उद्गम उत्तराखंड में स्थित, हिमालय के गंगोत्री हिमनद (ग्लेशियर) के, गोमुख स्थान से होता है तथा बंगाल की खाड़ी के सुन्दरवन एवं गंगा सागर में समापन होता है। उत्तर भारत के विशाल भू-भाग को सींचती हुई 2,525 किलोमीटर की दूरी तय कर माँ गंगा, गंगा सागर में सम्मिलित हो जाती हैं। अपनी लंबी यात्रा करते हुए यह, अपनी सहायक नदियों के साथ, दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान की रचना करती हैं, जिससे उत्तर भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतवासियों को खाद्य एवं जल सुगमता से प्राप्त हो जाता है।

प्रयाग-राज:
उत्तर प्रदेश में स्थित प्रयाग-राज गंगा, यमुना तथा गुप्त सरस्वती नदियों के संगम पर स्थित है जो सभी प्रयागों (संगम) में राजा कहा गया है। संगम स्थल को त्रिवेणी कहा जाता है एवं यह भारतीयों के लिए विशेषकर पवित्र स्थल है क्योंकि प्रत्येक 12 वर्षों में यहाँ विश्व प्रसिद्द महाकुंभा का भी आयोजन होता है। मत्स्य पुराण में मार्कण्डेय मुनि महाराज युधिष्ठिर से को प्रयागराज का महत्त्व बतलाते हुए कहते हैं –

पंच कुण्डानि राजेंद्र येषां मध्ये तु जाह्नवी।
प्रयागस्य प्रवेशे तु पापं नश्यति तत्क्षणात।।
(मत्स्य पुराण, अध्याय 104 (प्रयाग माहात्म्य), श्लोक 13)

अर्थात पांच कुण्डों के मध्य में, जहाँ जाह्नवी (गंगा) स्थित हैं उस प्रयागराज में प्रवेश करने मात्र से ही प्राणी के पाप नष्ट हो जाते हैं।

लोक-मान्यता अनुसार, यहां सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने सृष्टि कार्य पूर्ण होने के बाद प्रथम यज्ञ किया था। इसी प्रथम यज्ञ के ‘प्र’ और ‘याग’ अर्थात यज्ञ से मिलकर प्रयाग बना और उस स्थान का नाम प्रयाग पड़ा जहाँ ब्रह्मा जी ने सृष्टि का सर्वप्रथम यज्ञ सम्पन्न किया था। इस पावन नगरी के अधिष्ठाता भगवान श्री हरि विष्णु स्वयं हैं और वे यहाँ माधव रूप में विराजमान हैं। भगवान श्री हरि के यहाँ बारह स्वरूप विध्यमान हैं, जिन्हें द्वादश माधव भी कहा जाता है।

पंच प्रयाग:
गंगा मैया के तट पर प्रयागराज के अतिरिक्त पंच प्रयागों का भी वर्णन विश्व-प्रसिद्द तथा शास्त्र वर्णित है। क्रमशः पञ्च प्रयाग इस प्रकार हैं:

1. विष्णुप्रयाग – यहाँ पश्चिमी धौली गंगा अलकनंदा से मिलती है। अतः इस प्रवित्र संगम के स्थल को विष्णु प्रयाग कहा जाता है। पश्चिमी धोलीगंगा की एक सहायक नदी ऋषिगंगा भी है। विष्णुप्रयाग तक अलकनंदा को विष्णुगंगा के नाम से भी जाना जाता है। स्कंदपुराण में इस तीर्थ का वर्णन विस्तार से किया गया है। यहीं से सूक्ष्म बदरिकाश्रम प्रारंभ भी होता है। इसी स्थल पर दाएँ एवं बाएँ ओर दो पर्वत स्थित हैं, जिन्हें भगवान के द्वारपालों के रूप में पहचाना जाता है। दाएँ ओर जय तथा बाएँ ओर विजय कहे जाने वाले पर्वत स्थापित हैं।

2. नन्दप्रयाग – यहाँ नंदाकिनी नदी अलकनंदा जी में सम्मिलित हो जाती है। नंदाकिनी नदी का उद्गम स्थल त्रिशूल पर्वत के पास स्थित है। पौराणिक कथा के अनुसार यहां पर नंद महाराज ने भगवान नारायण की प्रसन्नता और उन्हें पुत्र स्वरूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या की थी। नंद की तपोभूमि एवं नंदाकिनी-अलकनंदा का संगम आदि योगों से इस स्थान का नाम नंदप्रयाग है।

3. कर्णप्रयाग – पिंडर नदी (या कर्ण गंगा) यहाँ अलकनंदा से मिलती है। पिंडर नदी बागेस्वर में स्थित पिंडारी हिमनद (ग्लेशियर) से निकलती है। यहीं पर कर्ण द्वारा भगवान सूर्य की आराधना और अभेद्य कवच कुंडलों का प्राप्त किया जाना सुप्रसिद्ध है।

4. रुद्रप्रयाग – मंदाकिनी एवं अलकनंदा के संगम स्थल को रूद्र प्रयाग के नाम से जाना जाता है। मंदाकिनी नदी मंदरांचल से उद्गम के बाद केदारनाथ से होते हुए रूद्र प्रयाग में अलकनंदा में सम्मिलित हो जाती है। इसकी मंद गति के कारण ही इनका नाम मंदाकिनी पड़ा। मंदाकिनी की सहायक नदियाँ मधुगंगा और वाशुकी / सोनगंगा हैं। मान्यता है कि नारद मुनि ने इस पर संगीत के गूढ रहस्यों को जानने के लिये रुद्रनाथ महादेव की अराधना की थी। यहीं पर भगवान रुद्र ने श्री नारदजी को ‘महती’ नामक वीणा भी प्रदान की थी।

5. देवप्रयाग – अति प्रवित्र देव प्रयाग भागीरथी एवं अलकनंदा के संगम के रूप में स्थापित है। इसी स्थल से भागीरथी एवं अलकनंदा के मिश्रित रूप को गंगा मैया के पवित्र नाम से जाना जाता है। सुदर्शन क्षेत्र के नाम से भी देवप्रयाग को जाना जाता है। स्कंद पुराण, केदारखंड में इस तीर्थ का विस्तार से वर्णन किया गया है। देव शर्मा नामक एक तपस्वी ब्राह्मण ने सतयुग में एक हज़ार वर्षों तक तप कर भगवान विष्णु को प्रसन्न किया तथा उनके दर्शन प्राप्त किये, इसी कारण यह स्थल देव प्रयाग के रूप में प्रसिद्ध है।

गंगा अवतरण दिवस – गंगा दशहरा
प्रारंभ में गंगा नदी स्वर्ग में ही बहती थीं। परन्तु भागीरथ महाराज की वर्षों की तपस्या के कारण गंगा मैया धरती पर अवतरित हो गयीं। इसलिए इन्हें भागीरथी भी कहा जाता है। माँ गंगा ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि (पांडव निर्जल एकादशी से एक दिन पूर्व) को प्रकट हुईं थी। इसी कारण पुरे भारत में गंगा पूजा अथवा गंगा दशहरा ज्येष्ठ अमावस्या से 10 दिनों तक हर्षों उल्लास से मनाया जाता है।

अग्नि पुराण और पद्म पुराण के अनुसार, गंगा दशहरा (ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, दशमी तिथि) के दिन ही गंगा मैया पृथ्वी पर अवतरित हुई थी और इस दिन सर्वाधिक पवित्र गंगा नदी में स्नान करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। गंगा के तट पर देह त्यागने को शास्त्रों में अत्यं शुभ माना गया है। यदि यह संभव न हो तो दाह संस्कार के बाद अस्थियों को गंगा नदी में विसर्जित करना ही चाहिए, ताकि मृत व्यक्ति का पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाये।

गंगा नदी अवतरण वर्णन – सारांश श्रील ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा
श्रीमद्भागवतम्, पाँचवाँ स्कंध, सत्रहवें अध्याय (5.17) में गंगा नदी की उत्पत्ति का वर्णन है। भगवान विष्णु एक बार बलि महाराज के पास पहुँचे। उस समय राजा बलि एक यज्ञ कर रहे थे। भगवान उनके समक्ष त्रिविक्रम या वामन के रूप में प्रकट हुए और राजा से तीन पग भूमि के रूप में भिक्षा माँगी। दो पग से भगवान वामन ने तीनों ग्रह मंडलों को ढक लिया और अपने बाएं पैर की उंगलियों से ब्रह्मांड के आवरण में छिद्र कर दिया।

इस छिद्र के माध्यम से कारण-सागर के जल की कुछ बूंदें रिसकर भगवान शिव के मस्तक पर विराजित हुईं, जहां वे कारण-सागर की बूँदें एक हजार सहस्राब्दियों तक रहीं। कारण सागर की ये बूंदें पवित्र गंगा नदी हैं। यह पहले स्वर्गीय ग्रहों पर बहती है, जो भगवान विष्णु के चरणों में स्थित हैं। गंगा नदी को कई नामों से जाना जाता है, जैसे भागीरथी और जाह्नवी। यह ध्रुवलोक और सात ऋषियों के ग्रहों को शुद्ध करतीं है क्योंकि ध्रुव और ऋषि दोनों की भगवान के चरण कमलों की सेवा करने के अलावा और कोई इच्छा नहीं है।

भगवान के चरण कमलों से निकलने वाली गंगा नदी, स्वर्ग के ग्रहों, विशेष रूप से चंद्रमा को जलमग्न कर देती है, और फिर मेरु पर्वत के ऊपर ब्रह्मपुरी से होकर बहती है। यहाँ नदी चार शाखाओं में विभाजित हो जाती है (जिन्हें सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा के रूप में जाना जाता है), जो फिर खारे पानी के सागर में सम्मिलित होती हैं।

सीता के नाम से जानी जाने वाली शाखा शेखर-पर्वत और गंधमादन-पर्वत से होकर बहती है और फिर भद्राश्व-वर्ष में, जहाँ यह पश्चिम में खारे पानी के समुद्र में मिल जाती है। चक्षु शाखा माल्यवन-गिरि से होकर बहती है और केतुमाल-वर्ष तक पहुँचने के बाद पश्चिम में खारे पानी के सागर में मिल जाती है। भद्रा के नाम से जानी जाने वाली शाखा कुरु-देश तक पहुँचने से पहले मेरु पर्वत, कुमुदा पर्वत, और नील, स्वेता और श्रृंगवन पर्वत पर बहती है, जहाँ यह उत्तर में खारे पानी के समुद्र में मिलती है।

अलकनंदा शाखा ब्रह्मालय से होकर बहती है, हेमकूट और हिमकूट सहित कई पहाड़ों को पार करती है, और फिर भरत-वर्ष तक पहुँचती हैं, जहाँ यह खारे पानी के महासागर के दक्षिणी भाग में मिल जाती हैं।

उपसंहार:
गंगा मैया ने श्री हरि के, लगभग, प्रत्येक अवतार में विशेष भूमिका निभाई है। कभी राम लीला में केवट की सुन्दर कथा में, या महाभारत में भीष्म पितामह की माता के रूप में। भगवान् कृष्ण ने स्वयं, गंगा में स्थित हो कर, पांडवों के संघ, कौरवों का श्रद्धा करवाया था। यही नहीं श्री चैतन्य महाप्रभु की बाल लीलाएं गंगा तट स्थित नवद्वीप नगर में सुप्रसिद्ध हैं। गंगा मैया का स्मरण होते ही भगवान् कृष्ण का स्मरण अति सरलता से हमें हो उठता है।

आइये हम गंगा पूजा के अति पावन अवसर पर कुंती महारानी की इस सुन्दर प्रार्थना को स्मरण करें तथा संकल्प करें की भगवान् कृष्ण का स्मरण हम सभी को सदैव रहे:

त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत् ।
रतिमुद्वहतादद्धा गङ्गेवौघमुदन्वति ॥
(श्रीमद भागवतं, स्कन्द 1, अध्याय 8, श्लोक 42)

अर्थात: हे मधु के स्वामी, जिस प्रकार गंगा निरन्तर बिना किसी बाधा के समुद्र में प्रवाहित होती है, मेरा आकर्षण किसी अन्य की ओर विचलित हुए बिना आपकी ओर निरन्तर बना रहे।

हरे कृष्ण

वैभव आनंद दास


लेखक के बारे में : वैभव के पास भारती विद्यापीठ विश्वविद्यालय, प्रौद्योगिकी महाविद्यालय, पुणे से बी.टेक (आई.टी.) की डिग्री है। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी, नगारो सॉफ्टवेयर, के साथ ऍस.ए.पी. टेक्निकल लीड है तथा इन्हें आई.टी. औद्योगिक जगत में 11 वर्षों का समग्र अनुभव है। भगवद गीता, श्रीमद् भागवतम, वैदिक ब्रह्मांड की संरचना, मृत्यु के पश्चात् जीवन, संस्कार, चेतना अध्ययन, गरुड़ पुराण आदि उनकी गहरी रुचि के क्षेत्र हैं।

 

2023-05-30T11:49:05+00:00

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